प्रो. संजय द्विवेदी देश के प्रख्यात पत्रकार, संपादक, लेखक, अकादमिक प्रबंधक और मीडिया गुरु हैं। दैनिक भास्कर, नवभारत, हरिभूमि, स्वदेश, इंफो इंडिया डाटकाम और छत्तीसगढ़ के पहले सेटलाइट चैनल जी चौबीस घंटे छत्तीसगढ़ जैसे मीडिया संगठनों में संपादक,समाचार सम्पादक, कार्यकारी संपादक, इनपुट हेड और एंकर जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां संभालीं। रायपुर, बिलासपुर, मुंबई और भोपाल में सक्रिय पत्रकारिता के बाद आप अकादमिक क्षेत्र से जुड़े। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में 10 वर्ष जनसंचार विभाग के अध्यक्ष रहने के अलावा विश्वविद्यालय के कुलसचिव और प्रभारी कुलपति रहे। मूल्यआधारित पत्रकारिता को समर्पित संगठन- ‘मूल्यानुगत मीडिया अभिक्रम समिति’ के अध्यक्ष हैं। मीडिया और राजनीतिक संदर्भों पर अब तक 32 पुस्तकों का लेखन एवं संपादन। राजनीतिक, सामाजिक और मीडिया मुद्दों पर नियमित लेखन से खास पहचान। अनेक संगठनों द्वारा मीडिया क्षेत्र योगदान के सम्मानित। संप्रति भारतीय जन संचार संस्थान (IIMC), नई दिल्ली के महानिदेशक हैं। प्रभासाक्षी डॉट कॉम ने उनसे खास बातचीत की। प्रस्तुत हैं मुख्य अंश-
– भारतीय जन संचार संस्थान के महानिदेशक के रूप में दिल्ली में तीन साल पूरे करने जा रहे हैं, पलटकर देखने पर स्वयं का कैसा मूल्यांकन करेंगें?
अपने काम का आप खुद मूल्यांकन कर सकते हैं, किंतु इसे बहुत विज्ञापित और प्रचारित नहीं कर सकते। मेरे काम का असल मूल्यांकन तो वे लोग ही करेंगें जो आईआईएमसी से जुड़े हैं या मेरी गतिविधियों को सावधानी से देख रहे हैं।कोरोना काल के दो सालों के बाद भी जो संभव था किया। मुझे अपनी भूमिका का संतोष है।
– आईआईएमसी के विकास के जो सपने हैं, उस दिशा में आप कितना आगे बढ़े हैं?
आईआईएमसी के दिल्ली सहित कुल छः परिसर हैं। अधोसंरचना की दृष्टि से जम्मू, कोट्टायम और आईजोल के परिसर बनकर तैयार हैं, वहां पढ़ाई शुरू हो चुकी है। ढेंकानाल परिसर पहले से ही बहुत अच्छा काम कर रहा है। सभी परिसरों में शिक्षकों की नियुक्ति और नए पाठ्यक्रमों का प्रारंभ हो चुका है। जैसे अमरावती और जम्मू में तीन पाठ्यक्रम चल रहे हैं। आईजोल, कोट्टायम और ढेंकानाल में दो पाठ्यक्रम चल रहे हैं। आने वाले समय में परिसरों की विस्तार की दृष्टि से बहुत काम होना शेष है। इसके साथ ही अपने पांच बौद्धिक प्रकाशनों के माध्यम से हमारा प्रकाशन विभाग बहुत महत्वपूर्ण काम कर रहा है। संवादपरक आयोजनों से शेष समाज से हमारा रिश्ता बना है। जिसे मैं बहुत खास मानता हूं।
– आप मूलतः पत्रकार हैं। शैक्षणिक क्षेत्र में आए और प्रशासनिक दायित्व भी निभा रहे हैं। कितना अलग-अलग पाते हैं इन कामों को?
व्यक्ति को हर भूमिका के लिए तैयार रहना चाहिए। अखबार और चैनल भी प्रशासनिक कौशल से ही चलते हैं। शैक्षणिक संस्थाएं भी। मूल बात है काम की समझ, लोगों की समझ और उनसे सही काम लेना। हर आदमी हर काम नहीं करेगा। लेकिन हर आदमी कुछ कामों को बहुत अच्छे से कर सकता है। व्यक्ति की समझ और उसे सही काम देकर दायित्वबोध जगाना यही संस्था प्रमुख की भूमिका होती है। हम कहते हैं “हर व्यक्ति के लिए काम। हर काम के लिए व्यक्ति और जहां कम, वहां हम।”आप देखें हमारे प्रधानमंत्री प्रबंधन और संचार कौशल दोनों दृष्टियों से एक आदर्श नायक हैं। ऐसे ही विविध क्षेत्रों में अनेक लोग हैं जिन्होंने साधारण परिस्थितियों से आकर असाधारण परिणाम दिए हैं।

– भारतीय भाषाओं के प्रति आपका प्रेम बहुत प्रकट है, इस पर बहुत जोर देना क्यों जरूरी है?
भारतीय भाषाएं सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं हैं। ये न्याय की भाषाएं हैं। हमें अपने लोकतंत्र को सफल बनाना है तो भारतीय भाषाओं में सब व्यवस्थाएं खड़ी करनी पड़ेंगी। आखिरी आदमी को न्याय, शिक्षा, प्रशासन, अधिकार सब उसकी भाषा में मिलेंगें तभी लोकतंत्र सार्थक होगा। अन्यथा समाज में गैरबराबरी बनी रहेगी। भाषा का भी एक उपनिवेश है, आजादी के अमृतकाल में हमें इन त्रासदियों से मुक्ति पानी है। यही सुराज के संकल्प हैं। यह कितनी अच्छी बात है भारत की सरकार आजादी के अमृतकाल में मातृभाषाओं और भारतीय भाषाओं सम्मान दिलाने की पहल कर रही है। शिक्षा के विषय में महात्मा गांधी कहा करते थे, “राष्ट्रीय शिक्षा को सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय होने के लिए राष्ट्रीय परिस्थितियों को दर्शाना चाहिए”। गांधी जी के इसी दूरदर्शी विचार को पूरा करने के लिए स्थानीय भाषाओं में शिक्षा का विचार राष्ट्रीय शिक्षा नीति में रखा गया है। अब हायर एजुकेशन में ‘मीडियम ऑफ इन्सट्रक्शन’ के लिए स्थानीय भाषा भी एक विकल्प होगी। 8 राज्यों के 14 इंजीनियरिंग कॉलेज, 5 भारतीय भाषाएं-हिंदी, तमिल, तेलुगू, मराठी और बांग्ला में इंजीनियरिंग की पढ़ाई शुरू करने जा रहे हैं। इंजीनिरिंग के कोर्स का 11 भारतीय भाषाओं में अनुवाद के लिए एक टूल भी बनाया जा चुका है। इसका सबसे बड़ा लाभ देश के गरीब वर्ग को, गांव-कस्बों में रहने वाले मध्यम वर्ग के विद्यार्थियों को, दलित-पिछड़े और जनजातीय भाई-बहनों को होगा। इन्हीं परिवारों से आने वाले बच्चों को सबसे ज्यादा ‘लैंग्वेज डिवाइड’ यानी ‘भाषा विभाजन’ का सामना करना पड़ता था। सबसे ज्यादा नुकसान इन्हीं परिवार के होनहार बच्चों को उठाना पड़ता था। मातृभाषा में पढ़ाई से गरीब बच्चों का आत्मविश्वास बढ़ेगा, उनके सामर्थ्य और प्रतिभा के साथ न्याय होगा। वे आत्मविश्वास से अपने सपनों में रंग भर सकेंगें।
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– आपकी पुस्तक ‘भारतबोध का नया समय’ पिछले दिनों काफी चर्चा में रही, इसका संदेश क्या है?
भारत और भारतीयता हमारी सबसे बड़ी और एक मात्र पहचान है, इसे हम सब स्वीकार करें। कोई किताब, कोई पंथ इस भारत प्रेम से बड़ा नहीं है। हम भारत के बनें और भारत को बनाएं। भारत को जानें और भारत को मानें। इसी संकल्प में हमारी मुक्ति है। हमारे सवालों के समाधान हैं। छोटी-छोटी अस्मिताओं और भावनाओं के नाम पर लड़ते हुए हम कभी एक महान देश नहीं बन सकते। इजराइल, जापान से तुलना करते समय हम उनकी जनसंख्या नहीं, देश के प्रति उन देशों के नागरिकों के भाव पर जाएं। यही हमारे संकटों का समाधान है।यह बहुत साधारण किताब है। जो राष्ट्रीयता का भाव जगाने के लिए सामान्यजनों के लिए लिखी गयी है। इसमें भारत का भारत से परिचय कराने पर जोर दिया गया है। यही शायद इस पुस्तक की लोकप्रियता का मुख्य कारण है।
– प्रख्यात गांधीवादी विचारक श्री धर्मपाल की जन्म शताब्दी पर आईआईएमसी में एक आयोजन किया था। ऐसे विचारकों को याद करना क्यों प्रासंगिक है?
आदरणीय धर्मपाल जी को याद करना अपनी संस्कृति और परंपरा का पुर्नपाठ ही है। एक समय में हमारे गांव भी ऐसे सिद्धों से भरे हुए थे। गहरी कलात्मकता, आंतरिक गुणों के आधार हमारे गांव कलाकारों, कारीगरों से भरे थे। जो समाज के उपयोग की चीजें बनाते थे, समाज उनका संरक्षण करता था। श्री धर्मपाल ने अपने लेखन में ऐसे समृद्ध गांवों का वर्णन किया है। जो समृध्दि से भरे थे, आत्मनिर्भर भी। इसके पीछे था ग्रामीण भारत में छिपा कर्मयोग। उनके मन में रची-बसी ‘गीता’। इन्हीं जागरूक भारतीय कारीगरों, कर्मठता से भरे कलाकारों ने भारत को विश्वगुरू बनाया था। कबीर अपने समय के लोकप्रिय कवि, समाजसुधारक हैं, पर वे भी कर्मयोगी हैं। वे अपना मूल काम नहीं छोड़ते। झीनी-झीनी चादर भी बीनते रहे। संत रैदास भी सिद्धि प्राप्त कर अपना काम करते रहे। यहां ज्ञान के साथ कर्म संयुक्त था। इसलिए गुरूकुल परंपरा में वहां की सारी व्यवस्थाएं छात्र खुद संभालते हैं। कर्मयोग और ज्ञानयोग की शिक्षा उन्हें साथ मिलती है। उनकी ज्ञान पिपासा उन्हें कर्म से विरत नहीं करती। वहां राजपुत्र भी सन्यासी वेश में रहते हैं और गुरू आज्ञानुसार लकड़ी काटने से लेकर भिक्षा मांगने, खेती-बागवानी का काम करते हुए जीवन युद्ध के लिए तैयार होते हैं। जमीन हकीकतें उन्हें योग्य बनाती हैं,गढ़ती हैं। वहां राजपुत्रों के फाइव स्टार स्कूल नहीं हैं। आश्रम ही हैं। समान व्यवस्थाएं है। भारत इन सूत्रों से ही बना है, इन्हें भूलकर ही भटकाव के रास्ते पर आ गए हैं और अपने संकट बढ़ा रहे हैं।
– पत्रकारिता में आ रही नई पीढ़ी को लिए आपका क्या संदेश है?
संदेश देने की स्थिति मेरी नहीं है। सुझाव दे सकता हूं। कोई भी नयी पीढ़ी अपनी पुरानी पीढ़ी से ज्यादा समझदार होती है। आने वाला समय उसी का होता है। नई आँखें, नई समझ और ऊर्जा उसके पास होती है। मीडिया या कम्युनिकेशन वैसे भी आडियाज और क्रियेटिविटी की दुनिया है। यहां नाम नहीं काम बोलता है। विचार बोलते हैं। इसलिए करके सीखिए और दुनिया से तारीफ लीजिए। लोगों को अपना बना लीजिए। कठिन काम है। भाषा, तकनीक और आप मिलकर इस पूरे वितान को रचते हैं। नई पीढ़ी निश्चय ही अच्छा कर रही है। वह निराश, हताश नहीं, आकांक्षावान भारत में पैदा हुई पीढ़ी है। उसे अमृतकाल के अमृत मिलेंगें ही बशर्ते वह अपनी कोशिशों में कमी न रखे
भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी से प्रभासाक्षी के संपादक नीरज कुमार दुबे की खास बातचीत