पश्चिम एशियाई देश तुर्किये के राष्ट्रपति पद के चुनाव में कोई विजेता नहीं बन पाया है क्योंकि जनता ने किसी को भी बहुमत नहीं दिया। हम आपको बता दें कि निवर्तमान राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन के खिलाफ छह विपक्षी दलों की ओर से कमाल केलिकदारोग्लू को संयुक्त उम्मीदवार बनाया गया था और चुनाव प्रचार के दौरान विपक्ष ने एर्दोगन सरकार की नाकामियों को बखूबी जनता के समक्ष रखा था। चुनाव प्रचार के दौरान ही दिख रहा था कि तुर्किये में काँटे की टक्कर है लेकिन अब जब कोई भी उम्मीदवार 50 प्रतिशत से ज्यादा मत हासिल नहीं कर पाया है, ऐसे में दोबारा चुनाव कराये जाने के आसार हैं। हालांकि शुरुआती रिपोर्टों में बताया गया था कि एर्दोगन बढ़त बनाये हुए हैं लेकिन मतों की गिनती के बाद कोई भी उम्मीदवार 50 प्रतिशत मत हासिल नहीं कर पाया। बताया जा रहा है कि एर्दोगन को 49.24 प्रतिशत और कमाल केलिकदारोग्लू को 45.6 प्रतिशत मत मिले। हम आपको बता दें कि तुर्किये के नियमों के मुताबिक राष्ट्रपति पद का चुनाव जीतने के लिए 50 प्रतिशत से ज्यादा मत हासिल करने होते हैं। अब बताया जा रहा है कि 28 मई को दोबारा से चुनाव कराये जायेंगे जिसके लिए दोनों उम्मीदवारों ने फिर से कमर कस ली है।
जहां तक तुर्किये के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों की बात है तो यह तो सभी जानते हैं कि निवर्तमान राष्ट्रपति एर्दोगन भारत के कट्टर विरोधी माने जाते हैं तो वहीं दूसरी ओर उनके प्रतिद्वंद्वी कमाल केलिकदारोग्लू को तुर्किये के गांधी के रूप में लोकप्रियता हासिल है। तुर्किये में उन्हें कमाल गांधी भी कहा जाता है। तुर्किये की मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक मतगणना के शुरुआती रुझानों में एर्दोगन आगे चल रहे थे लेकिन बाद में कमाल को मिले मतों की संख्या बढ़ने से दोनों प्रतिद्वंद्वियों की बीच अंतर कम होता चला गया। बताया जा रहा है कि एर्दोगन देशवासियों से फिर अपील करेंगे कि वह 28 मई को होने वाले चुनावों में उन्हें मत दें। हालांकि एर्दोगन को शुरू से ही अपनी जीत का भरोसा था लेकिन उन्हें 50 प्रतिशत से कम मत मिलना दर्शाता है कि वह अलोकप्रिय हुए हैं। दरअसल, हाल के विनाशकारी भूकंप के बाद राहत कार्यों को सही से नहीं चला पाने, लाखों लोगों के अपने पक्के घरों से हाथ धोने तथा तेजी से बढ़ती महंगाई के कारण भी एर्दोगन की लोकप्रियता कम हुई है। इसके अलावा बढ़ती बेरोजगारी और बड़ी संख्या में लोगों का विस्थापित होना भी सरकार से नाराजगी के बड़े कारण के रूप में देखे गये। साथ ही एर्दोगन को तुर्किये में शासन करते हुए लंबा समय भी हो गया है इसलिए भी जनता अब नया नेतृत्व चाहती है।
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हम आपको यह भी याद दिला दें कि लगभग एक साल पहले एर्दोगन ने अपने देश का नाम तुर्की से बदल कर तुर्किये कर दिया था। एर्दोगन ने देश का नाम इसलिए बदला था क्योंकि उन्हें लगता था कि तुर्की नाम इतिहास की कुछ घटनाओं के चलते असफलता और विफलता का प्रतीक है लेकिन अब जब राष्ट्रपति चुनाव के परिणाम को देखें तो प्रतीत होता है कि उनका यह टोटका काम नहीं आया। तुर्की नाम जब तक था तब तक यह देश सुविधा संपन्न था लेकिन तुर्किये नाम होते ही पहले विनाशकारी भूकंप ने देश को बर्बाद किया और अब चुनाव में जनता ने एर्दोगन की कुर्सी लगभग छीन ही ली है। देखा जाये तो एर्दोगन ने सिर्फ अपने देश से तुर्की नाम ही नहीं छीना बल्कि देश से वास्तविक लोकतंत्र भी छीन लिया था। हम आपको याद दिला दें कि एर्दोगन ने तुर्की के संविधान में संशोधन कर वहां संसदीय प्रणाली की जगह पर अध्यक्षीय प्रणाली लागू कर दी थी जिससे देश में असल लोकतंत्र होने पर ही सवाल खड़े हो गये थे।